हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए हथीन में नामांकन भरने के दौरान कांग्रेस उम्मीदवार इसराइल चौधरी के समर्थन में निकाले गए जुलूस में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने का एक वीडियो सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहा है।
अब सवाल यह है की क्या पाकिस्तान जिन्दाबाद कहने पर राजद्रोह का मामला बनता है या नहीं।
लेकिन क्या 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' के नारे लगाना राजद्रोह है और पाकिस्तान मुर्दाबाद कहना देशभक्ति का सबूत?
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे कहते हैं, "पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहना राजद्रोह नही है. राजद्रोह तो दूर की बात, यह कोई गुनाह भी नहीं है, जिसके आधार पर पुलिस गिरफ़्तार कर ले."
दवे कहते हैं, "पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध की बात संविधान में कही गई है. जिन्हें लगता है कि पाकिस्तान से नफ़रत ही दे ... View More
हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए हथीन में नामांकन भरने के दौरान कांग्रेस उम्मीदवार इसराइल चौधरी के समर्थन में निकाले गए जुलूस में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने का एक वीडियो सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहा है।
अब सवाल यह है की क्या पाकिस्तान जिन्दाबाद कहने पर राजद्रोह का मामला बनता है या नहीं।
लेकिन क्या 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' के नारे लगाना राजद्रोह है और पाकिस्तान मुर्दाबाद कहना देशभक्ति का सबूत?
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे कहते हैं, "पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहना राजद्रोह नही है. राजद्रोह तो दूर की बात, यह कोई गुनाह भी नहीं है, जिसके आधार पर पुलिस गिरफ़्तार कर ले."
दवे कहते हैं, "पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध की बात संविधान में कही गई है. जिन्हें लगता है कि पाकिस्तान से नफ़रत ही देशभक्ति है वो भारत को नेशन-स्टेट के तौर पर नहीं समझते हैं. किसी एक देश से नफ़रत इतने बड़े मुल्क के प्रति वफ़ादारी का सबूत नहीं हो सकता. भारत के संविधान में भी इसकी कोई जगह नहीं है."
राजद्रोह के पुराने मामले
31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पंजाब सरकार को दो कर्मचारियों बलवंत सिंह और भूपिंदर सिंह को 'खालिस्तान ज़िंदाबाद' और 'राज करेगा खालसा' का नारा लगाने के मामले में गिरफ़्तार किया गया था. बलंवत और भूपिंदर ने इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ घंटे बाद ही चंडीगढ़ में नीलम सिनेमा के पास ये नारे लगाए थे.
इन पर भी आईपीसी की धारा 124-A के तहत राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था. ये मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और 1995 में जस्टिस एएस आनंद और जस्टिस फ़ैज़ानुद्दीन की बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस तरह से एक दो लोगों का नारा लगाना राजद्रोह नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने कहा था, "दो लोगों का इस तरह से नारा लगाना भारत की सरकार और क़ानून-व्यवस्था के लिए ख़तरा नहीं है. इसमें नफ़रत और हिंसा भड़काने वाला भी कुछ नहीं है. ऐसे में राजद्रोह का चार्ज लगाना बिल्कुल ग़लत है."
सरकारी वकील ने ये भी कहा कि इन्होंने 'हिन्दुस्तान मुर्दाबाद' के भी नारे लगाए थे. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इक्के-दुक्के लोगों के इस तरह के नारे लगाने से इंडियन स्टेट को ख़तरा नहीं हो सकता.
कोर्ट ने कहा कि सेडिशन का सेक्शन तभी लगाया जाना चाहिए जब कोई समुदायों के भीतर नफ़रत पैदा करे. कोर्ट ने ये भी कहा कि पुलिस ने इन्हें गिरफ़्तार करने में अपनी परिपक्वता नहीं दिखाई क्योंकि तनाव के माहौल में इस तरह की गिरफ़्तारियों से स्थिति और बिगड़ सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "इस तरह के माहौल में ऐसी कार्रवाइयों से हम समस्या ख़त्म नहीं करते बल्कि बढ़ाते ही हैं." अदालत ने बलवंत सिंह और भूपिंदर सिंह से राजद्रोह का मामला हटा लिया था.
कन्हैया पर राजद्रोह का मामला
ठीक ऐसा ही आरोप जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और सीपीआई नेता कन्हैया कुमार के ऊपर लगा है. कन्हैया पर पर आरोप लगे चार साल हो गए लेकिन अभी तक पुलिस आरोपपत्र दायर नहीं कर पाई है.
अब दिल्ली सरकार की अनुमति पर आरोपपत्र दायर हो सकता है लेकिन कोर्ट में अगर साबित भी होता है कि कन्हैया ने भारत विरोधी नारे लगाए थे तो जस्टिस एएस आनंद के फ़ैसले की नज़ीर ज़रूर दी जाएगी.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी ने भी फ़रवरी के तीसरे हफ़्ते में एक कार्यक्रम में कहा कि अमूल्या पर सेडिशन यानी राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज करना क़ानून का दुरुपयोग है.
उन्होंने कहा, "ये स्पष्ट रूप से क़ानून का दुरुपयोग है. इसमें राजद्रोह का मामला कहां से बनता है? यहां तक कि उस लड़की ने जो कुछ भी कहा उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए इंडियन पीनल कोड में कोई प्रावधान नहीं है. राजद्रोह तो दूर की बात है. उस पर किसी भी किस्म का कोई आपराधिक मामला नहीं बनता है."
जस्टिस रेड्डी ने कहा, "अगर अमरीका ज़िंदाबाद या ट्रंप ज़िंदाबाद कहने कहने में कोई दिक़्क़त नहीं है तो पाकिस्तान ज़िदाबाद कहने में भी कोई दिक़्क़त नहीं है."
अमूल्या बेंगलुरु यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता की छात्रा हैं और उन्हें इस मामले में अधिकतम आजीवन कारावास की सज़ा हो सकती है. जस्टिस रेड्डी ने कहा कि इस मामले में कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेना होगा, नहीं तो अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले बढ़ते जाएंगे.
जस्टिस रेड्डी ने कहा, "पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहना तब तक कोई अपराध नहीं है जब तक कि भारत का पाकिस्तान के बीच कोई युद्ध नहीं हो रहा हो या फिर पाकिस्तान को शत्रु मुल्क घोषित न किया गया हो. जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद से पाकिस्तान से भारत के संबंध अच्छे नहीं हैं लेकिन दोनों देशों के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध अब भी बने हुए हैं."
क़ानूनी पक्ष
राजद्रोह यानी सेडिशन के मामले में आईपीसी के सेक्शन 124-A पर सुप्रीम कोर्ट ने सबसे अहम फ़ैसला 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में सुनाया था. केदारनाथ सिंह ने 26 मई, 1953 को बेगूसराय में आयोजित एक रैली में भाषण दिया था. केदानाथ सिंह तब फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे. इस रैली में उन्होंने तब बिहार की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी पर जमकर हमला बोला था.
केदरनाथ सिंह ने अपने भाषण में उन्होंने कहा था, "सीआईडी के कुत्ते बरौनी में घूमते रहते हैं. कई सरकारी कुत्ते इस सभा में भी बैठे होंगे. भारत के लोगों ने ब्रिटिश ग़ुलामी को उखाड़ फेंका और कांग्रेसी गुंडों को गद्दी पर बैठा दिया. हम लोग अंग्रेज़ों की तरह कांग्रेस के इन गुंडों को भी उखाड़ फेंकेंगे."
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा था कि सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त शब्दों का इस्तेमाल राजद्रोह नहीं है. कोर्ट ने कहा कि सरकार की ग़लतियों और उसमें सुधार को लेकर विरोध जताना और कड़े शब्दों का इस्तेमाल करना राजद्रोह नहीं है. कोर्ट ने कहा कि जब तक कोई हिंसा और नफ़रत नहीं फैलाता है तब तक राजद्रोह का कोई मामला नहीं बनता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि लोगों के पास अधिकार है कि वो सरकार के प्रति अपनी पसंद और नापसंद ज़ाहिर करें. जब तक हिंसा का वातावरण नहीं पैदा किया जाता है या व्यवस्था भंग नहीं की जाती है तब तक राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज नहीं किया जा सकता है.
राष्ट्रवाद बनाम राजद्रोह की राजनीति
2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से कई ऐसी चीज़ें सामने आईं जिन्हें राष्ट्रवाद के सबूत के तौर पर पेश किया गया. सिनेमा घरों में फ़िल्म शुरू होने से पहले बजने वाले राष्ट्रगान के समय खड़े होना अनिवार्य किया गया. कई लोगों ने राष्ट्रगान बजने के वक़्त अपनी सीट से उठने से इनकार किया तो उनकी पिटाई के वाक़ये भी सामने आए, हालांकि बाद में इसे अनिवार्य से स्वैच्छिक कर दिया गया.
लोगों के खान-पान पर बहस शुरू हुई और बीफ़ खाने के शक में पीट-पीटकर जान भी ले ली गई. ये भी बात होने लगी कि क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए. असहमति को लेकर सवाल उठने लगे और राष्ट्रवाद को नारे लगाने और तिरंगा लहराने तक सीमित करने की कोशिश की गई.
इतिहासकार मृदुला मुखर्जी 'राष्ट्रवाद' शब्द के अर्थ और उसकी बारीकियों को भारत की आज़ादी की लड़ाई के संदर्भ में देखती हैं.
वो कहती हैं, "हिटलर का राष्ट्रवाद गांधी और नेहरू के राष्ट्रवाद से अलग था. यूरोप के राष्ट्रवाद की अवधारणा साम्राज्यवाद के विस्तार के दौर में विकसित हुई. यूरोप के राष्ट्रवाद में दुश्मन अपने ही भीतर ही थे, वो चाहे यहूदी हों या प्रोटेस्टेंट. इसके उलट भारत में राष्ट्रवाद बाहरी साम्राज्यवाद यानी ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ विकसित हुआ. इसने लोगों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एकजुट करने का काम किया. बाद में यह उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद बना, जहां प्राथमिक पहचान भारतीय थी और जाति, मज़हब, भाषा की अहमियत नहीं थी."
जिन रवींद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रगान लिखा राष्ट्रवाद पर उनके विचारों को समझना काफ़ी ज़रूरी है. टैगोर ने कहा था, "राष्ट्रवाद हमारा अंतिम आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं हो सकता. मेरी शरणस्थली तो मानवता ही है. हीरों की क़ीमत पर मैं शीशा नहीं ख़रीदूंगा. जब तक मैं जीवित हूं तब तक देशभक्ति को मानवता पर विजयी नहीं होने दूंगा."
अंग्रेज़ों का दमनकारी कानून
महात्मा गांधी ने 'यंग इंडिया' में 1922 में लिखा था कि "कोई भी लक्ष्य हासिल करने से पहले ये ज़रूरी है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करें."
गांधी कहते थे कि जीवन के ये बुनियादी अधिकार हैं और बिना इसे सुनिश्चित किए कोई राजनीतिक आज़ादी हासिल नहीं हो सकती. आज़ादी के बाद जब संविधान बना तो अभिव्यक्ति और धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार में शामिल किया गया.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में असहमति ज़ाहिर करना भी शामिल है, और यह बहुत अहम भी है. एस रंगराजन बनाम पी जगजीवन राम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा था कि 'लोकतंत्र में ज़रूरी नहीं है को हर इंसान एक ही गीत गाए.'
ऐतिहासिक रूप से सेडिशन यानी राजद्रोह का क़ानून अंग्रेज़ शासकों ने बनाया था. इसी क़ानून के तहत महात्मा गांधी और बालगंगाधर तिलक को भी जेल में डाला गया था.
22 अप्रैल 2017 को एमएन रॉय मेमोरियल लेक्चर में बोलते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस एपी शाह ने कहा था, "1908 गिरफ़्तार होने से पहले बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि सरकार ने पूरे मुल्क को जेल बना दिया है और लोग क़ैदी बन गए हैं. जेल जाने का मतलब महज़ इतना है कि एक बड़े सेल से छोटे सेल में शिफ़्ट होना है."
1922 में महात्मा गांधी को राजद्रोह के मामले में दोषी ठहराया गया. अंग्रेज़ इस क़ानून का इस्तेमाल करके स्वतंत्रता सेनानियों को जेल में डालते थे. ग़ुलाम भारत के राजद्रोह का यही क़ानून आज भी आज़ाद भारत में चल रहा है और इसका भरपूर इस्तेमाल हो रहा है.
दुष्यंत दवे कहते हैं कि इस क़ानून का अब कोई मतलब नहीं है. वो कहते हैं, "1950 में संविधान लागू होने के बाद ही इस क़ानून को ख़त्म कर देना चाहिए था. इस क़ानून का ग़लत इस्तेमाल ऐसा नहीं है कि इस सराकर में हो रहा है बल्कि हर सरकार ने किया है. यूनिवर्सिटी में बहस, असहमति और सरकार को चुनौती देना राजद्रोह और राष्ट्रविरोधी बता दिया जा रहा है."
अग्रेज़ों का बनाया ये क़ानून आज़ाद भारत में आज भी कायम है जबकि ख़ुद अंग्रेज़ों ने ब्रिटेन में 2009 में इसे ख़त्म कर दिया.
राजद्रोह का क़ानून इंग्लैंड में 17वीं सदी में राजा और शासन के ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ को रोकने के लिए बना था. इसका उद्देश्य यह था कि लोग सरकार के बारे में केवल अच्छी बातें कहें. इसी क़ानून को 1870 में अग्रेज़ों ने भारत में भी लागू कर दिया.
अंग्रेज़ों ने इस क़ानून का इस्तेमाल 1897 में बाल गंगाधर तिलक के ख़िलाफ़ किया. तिलक ने शिवाजी पर आयोजित एक कार्यक्रम में भाषण दिया था. हालांकि इस भाषण में सरकार की अवहेलना और उसे उखाड़ फेंकने जैसी कोई बात नहीं थी. कोर्ट ने इस क़ानून की व्याख्या की थी कि "स्टेट के प्रति नफ़रत, हिंसा, दुश्मनी, अवलेहना और ग़द्दारी के मामले में राजद्रोह का मुकदमा चलेगा."
अभिव्यक्ति के नाम पर...
जून 1951 में संसद में पहला संविधान संशोधन पास किया गया और अनुच्छेद 19 (2) में तीन नई शर्तें जोड़ी गईं. ये शर्तें थीं- सार्वजनिक शांति भंग करना, अपराध के लिए किसी को उकसाना और दूसरे देशों से दोस्ताना संबंध ख़राब करने वाली अभिव्यक्ति को रोका जा सकता है.
अभिनव चंद्रचूड़ ने लिखा, "दूसरे देशों से दोस्ताना संबंध की शर्त श्यामा प्रसाद मुखर्जी को रोकने के लिए जोड़ा गई थी. नेहरू ने संसद में दिए भाषण में कहा था कि अगर कोई व्यक्ति ऐसा कुछ करता है जिससे युद्ध भड़कता है तो यह बहुत ही गंभीर मामला है. नेहरू ने कहा था कि कोई भी देश अभिव्यक्ति के नाम पर युद्ध नहीं झेल सकता है."
दूसरी तरफ़, नेहरू के जवाब में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पहले संविधान संशोधन पर संसद की बहस में कहा था कि "देश का विभाजन एक ग़लती थी और इसे एक न एक दिन ख़त्म करना होगा, भले इसके लिए बल का प्रयोग करना पड़े." View Less
